मन के शब्द
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तू तो आफताब है रौशनी का काम क्या ?
प्यार के सैलाब मे नफरतों का काम क्या ?
मौत के आगोश मे दो गज ही जमीं चाहिये ,
बादशाही न रही फिर हशरतों का काम क्या ?
जिंदा हैं मगर आज हम मुर्दा सरीखे हो गये ,
सियासी अंदाज मे फिर हरकतों का काम क्या ?
भूखा पड़ा फुटपाथ पर उसको न रोटी दे सके ,
शहंशाही अंदाज मे इन बरकतों का काम क्या ?
बेहया इतना हुए और शर्म से न मर सके ।
जान लेने को “प्रखर” फिर तरकसों का काम क्या ?
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