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मित्रता

मन के शब्द
मन के शब्द
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आज के इस बदलते परिवेश मे सारी चीजें बदल रही हैं । सामाजिकमूल्य भी बदले हैं किंतु ऋणात्मक । इस तरह से हमारे सामाजिक मूल्यों का ह्रास ही हुआ है । इस नये समाज मे रिश्ते नातों का भी अवमूल्यन हो रहा है फिर भला मित्रता कैसे अछूती रह जाती ।आज के युग मे मित्रता का अर्थ सैर सपाटों और मौज मस्ती तक सिमत कर रह गया है । संस्कृत की निम्न सूक्ति कितनी गम्भीरता से मित्रता के अर्थ को प्रदर्शित करती है , देखा जा सकता है –
दिनस्य पूर्वार्ध परार्ध भिन्न: ,
छायेव मैत्री खलु सज्जनानाम् ।
दिन के सुवह और शाम की छाया की तरह दुर्जन और सज्जन लोगों की मित्रता होती है।
जिस तरह दिन के प्रारम्भ मे हमारी छाया पहले बड़ी होती है और जैसे जैसे दिन चढ़ता है , छाया छोटी होने लगती है किंतु मद्यान्ह के बाद पहले हमारी छाया छोटी और फिर धीरे धीरे बढ़ना प्रारम्भ कर देती है । ठीक इसी तरह दुर्जन और सज्जन व्यक्ति की मित्रता होती है । दुर्जन व्यक्ति की मित्रता प्रारम्भ मे प्रगाढ़ होती है । फिर धीरे कम होते होते टूट जाती है । थीक इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की मित्रता प्रारम्भ मे कम किंतु धीरे धीरे प्रगाढ़ होती जाती है।
आज के युग मे मित्रता का भाव ह्ल्का हो गया है । आज है , कल नहीं । कुछ मित्रता तो लक्ष्य निर्धारित होती है । काम बना मित्रता समाप्त । सही मायने मे मित्र वही है जो सन्मार्ग की ओर ले जाये ।कुपंथ मे जाने से रोके । विपत्ति मे साथ दे । महा कवि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस मे मित्रके बारे मे लिखा है –
आपद काल परखिये चारी ।
धीरज धरम मित्र अरु नारी ॥
अर्थात विपत्ति के समय मे मित्र की परख होती है । हमारे जीवन मे धीरज , धरम व नारी के समान ही मित्र को माना गया है । मनुष्य के जीवन मे इन चारों की भूमिका महत्वपूर्ण है । हमारे धर्मग्रंथ , वेद , उपनिषद और हमारा अतीत मित्रता से भरा पड़ा है । यदि हम सनातन धर्म या हिंदी साहित्य की बात छोंड‌ भी दें तो अंग्रेजी के महानलेखकों व विचारकों ने मिय्रता के बारे मे अपनें उद्गार व्य्क्त किये हैं । अंग्रेजी के महान लेखक ‘एनन’ के अनुसार –
“Everyone hear what you say . Best friends listen what you do not say .”
कहने का अर्थ है कि सच्चा मित्र हमारे मन की अनकही बात को भी जान लेता है । हम मित्र से क्या चाहते हैं ,इसके लिए शब्दों क्र्र आवश्यकता नही होती है । इस संदर्भ मे कृष्ण और सुदामा की मित्रता का जिक्र आवश्यक है ।
पौराणिक कथाओं के आधार पर कृष्ण और सुदामा की मित्रता प्रसिद्ध है । वे दोनो एक दूसरे के सच्चे मित्र थे । समय चक्र के साथ कर्मफल के अनुसार कृष्ण मथुरा के राजा बनें और सुदामा अकिंचन जिसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी । सुदामा के पास खुद के अलावा खोने को कुछ भी नहीं था । किसी तरह भीख मांग कर वह अपने परिवार का भरण पोषण करता था । जब सुदामा की पत्नी को यह ग्यात हुआ कि उसका पति और त्रलोकीनाथ कृष्ण बाल सखा थे, तो उसकी पत्नी ने सहायतार्थ कृष्ण के यहां जाने के लिए सुदामा से बार बार आग्रह किया । सुदामा को संकोच था कि वह इस हाल मे अपने मित्र के यहां कैसे जाये किंतु स्त्री हठ के कारण सुदामा ने कृष्ण के यहां जाना स्वीकार कर लिया ।
हमारे पौराणिक कथा साहित्य मे इस घटना का बड़ा ही मार्मिक वर्णन मिलता है । चूंकि वह पहली बार अपने मित्र से मिलने जा रहा था अत: भेंट मे कुछ तो ले जाना चाहिए था । यह बात सुदामा भलीभांति जानता था किंतु सुदामा के पास्स ऐसा कुछ भी नहीं था । बड़ी ही असमंजस की स्थिति थी । भरसक प्रयास करने पर उसकी पत्नी केवल मुट्ठी भर चावलों का प्रवन्ध ही कर पाई । उन मुट्ठी भर चावलों को पोटली मे बांध कर सुदामा अपने बाल सखा कृष्ण से मिलने द्वारिका पहुंचे । सुदामा राज महल मे कैसे गये , कृष्ण ने अपने बाल सखा का स्वागत कैसे किया आदि यहां पर विषय वस्तु नही है ।विषय वस्तु है कि जिस काम के लिए सुदामा अपने मित्र के पास आया था , उस बात को वह कृष्णके सामने शव्दों से पेश नहीं कर सका किंतु कृष्ण ने अपने मित्र के मन की बात जान ली कि वह सहायतार्थ आया है । यही सच्चे मित्र की पहचान है । मित्रता की पराकाष्ठा है ।
कहने का तात्पर्य है कि मित्र अनकही बातों को भी समझता है । कहते हैं कि जब सारे रिश्ते नाते निष्क्रिय हो जाते है तब भी मित्रता का रिश्ता सक्रिय रहता है । उसका कारण भी है । व्यक्ति सामाजिक प्राणी है । जन्मदाता माता पिता कहलाते हैं , पुत्र पुत्रियां ही आगे आनेवाली पीढ़ी हैं । बेटा कैसा होगा कोई मां बाप नहीं जानता या फि हमारे जन्मदाता अमीर /गरीब हों ,उस पर हमारा कोई वश नहीं है । इन रिश्तों को बदलने का प्रावधान नहीं है किंतु मित्र मे ऐसा नही है । समान विचारधारा या एक जैसी सोच वाले व्यक्ति ही मित्र बन सकते हैं ।सम्मन विचारों के साथ मित्रता फूलती फलती है । मित्रता का रिश्ता कभी नाजुक नहीं होता है । समय और परिस्थितियों के साथ यह रिश्ता प्रगाढ़ होता जाता है ।
मित्रता मे स्वार्थपरता का अभाव होता है । इसमे त्याग की भावना समाहित रहती है । आपस मे विश्वास होता है । एक दूसरे के मनोभावों को समझने की सामर्थ होती है । कुछ लोगों का विचार है कि एकाकी जीवन अच्छा है किंतु एसा नहीं है ।“अकेला चलो रे” की विचारधारा का अर्थ मित्र न बनाने से नहीं है बल्कि स्वयम् ही नई राह चुनने से है । पाश्चात्य विचारक हेलेन केरर के अनुसार –
“Walking with a friend in dark is better than walking alone in the light “
प्रकाश मे अकेले घूमने से अंधेरे मे मित्र के साथ घूमना अच्छा है ।
इतना ही नही फिल्म जगत के माध्यम से भी समय समय पर हमें मित्रता (दोस्ती) के बारे मे जागरूक किया गया है ।
ये दोस्ती हम नही तोड़ेंगे , तोड़ेंगे दम मगर ।
तेरा साथ न छोंड़ेंगे ॥
यही मित्रता की पहचान है । हमारा सहित्य इस तरह की शिक्षा से भरा पड़ा है । साहित्य समाज का दर्पण होता है । साहित्य मे तत्कालीन समाज का प्रभाव पड़ता है । राम की सुग्रीव से , कर्ण की दुर्योधन से मित्रता हमारे लिए एक प्रेरक प्रसंग है ।
इस तरह से हम कह सकते हैं कि मित्रता का रिश्ता हम्मरे समाज द्वारा प्रदत्त एक वरदान है ।हमें इसका लाभ उठाना चाहिए । हमें अच्छे मित्र बनाने के साथ साथ अच्छे मित्र भी बनना चाहिए । अपने मित्रों को सन्मार्ग मे चलने की सीख देनी चाहिए । एक दूसरे की मदद करनी चाहिए ।
मौज मस्ती का नहीं है नाम प्यारे दोस्ती ।
दोस्त का साजे संवारे काम सारा दोस्ती ।
दोस्ती मे जान भी कुरबान कर देना “प्रखर”,
काम आये वक्त व बेवक्त प्यारे दोस्ती ॥
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